Monsieur Lazhar – नन्हे जिस्मों के टुकड़े

आखिर क्या होती है फ़िल्म ! आखिर कर क्या जाती है फ़िल्म। क्यों हमारे पिछले गुज़र चुके बिम्बों को दुबारा हमारे सामने ला खड़ा करती है एक फ़िल्म ? क्या एक फ़िल्म वही है जो अचंभित कर देने वाली तकनीक से बनी हो ? या वो जो स्टोरी टेलिंग में घुमावदार मोड़ लिए ढाई घंटे बैठने का साधन हो वो ? अगर फ़िल्म समझ पाना इतना आसान होता तोह यह माध्यम कभी अपने आप में इतनी शक्ति न रखता। ना ही दुनिया के महान मुल्कों से फ़िल्म मूवमेंट जनम लेतीं और ना ही रोबर्ट ब्रेस्सों, एंटोनी, बर्गमैन इत्यादि फिल्मकार कभी कलाकार कहलाते। यह फ़िल्म ही थी जो इनके बाद भी इनकी बताई कहानियों को आज भी ज़िंदा रखे हुए है। खैर इस माध्यम पर पहले से बहुत कुछ लिखा जा चूका है, पर यहां मैं बात करना चाहूँगा 2011 में आई केनेडियाई फ़िल्म Monsieur Lazhar की। 84वें अकादमी अवार्ड्स में कनाडा की तरफ से फॉरेन केटेगरी में नॉमिनेट हुयी यह फ़िल्म फ्रेंच भाषा में बनी है।

हम जीते क्यों हैं ? क्या इस लिए के एक दिन किसी घटनाक्रम का शिकार हो कर मारे जाएँ। फिर चाहे वो घटना 25 की उम्र में हो या 85 की। अंत तोह मौत है। लेकिन यह मौत अपने साथ पीछे क्या छोड़ जाती है ? शायद, बच गए लोगों के लिए अचरज, दुविधा या फिर मातम। आखिर हल क्या है ? हल है भी ? ऐसी ही अवस्था, ऐसे ही सवालों से दर्शक को दो चार कराती है Philippe Falardeau द्वारा निर्देशित कैनेडियन फ्रेंच ड्रामा फ़िल्म ‘Monsieur Lazhar’।
कथा यह है के मोंट्रियल इलाके के एक एलेमेंट्री स्कूल की एक टीचर ने क्लास में आत्महत्या कर ली है। 11-12 साल की उम्र के बच्चे इस मौत से अचरज में हैं। इस से पहले के उपरोक्त कारण से स्कूल बंद हो, स्कूल की प्रिंसिपल पढ़ाई जारी रखने के लिए एक नए टीचर को अप्पोइंट करती है। नया अध्यापक जो के अल्जीरिया मुल्क से आया एक रिफ्यूजी है और कनाडा में अस्थायी राजनितिक शरण में है। बिना उसके बारे कुछ ज्यादा जाने उसे अप्पोइंट कर लिए जाता है। बशीर का पूरा परिवार पीछे अल्जीरिया के दंगों में खत्म हो चूका है। वो अब कनाडा में सम्पूर्ण नागरिकता के लिए लड़ रहा है। परिवार के छूट जाने के मातम को दिल में समेटे Bachir Lazhar ( नया टीचर ) उन अचरज भरे दिलों वाले बच्चों से मुखातिर होता है। यहां उसका सामना उन बच्चों से है जो उस आत्महत्या से ख़ौफ़ज़दा हैं। यहां दो दुनिया का मेल है, एक तरफ जहां मौत अपनी मर्जी से लायी गयी है दूसरी तरफ हालात की वजह से आई मृतयु है।
यहां दाद देनी बनती है Philippe की जिन्होंने इतने संवेदनशील विषय को इतनी खूबसूरती और बिना मेलोड्रामे के गढ़ा, के देखने वाला उन बच्चों में खुद को देख पाता है क्योंकि हमने भी अपने खोये हैं और उन अध्यापक से relate कर पाता क्योंकि हम सब कहीं न कहीं शरणार्थी हैं।
यह फ़िल्म Évelyne de la Chenelière के one act play ‘ Bachir Lazhar’ पर आधारित है। Mohamed Saïd Fellag जो के अल्जीरिया के ही जाने माने कॉमेडियन और लेखक हैं, उनके द्वारा निभाया गया बशीर का किरदार बेहद सराहनिय है। एक कॉमेडियन को गंभीर किरदार निभाते देखना कमाल होता है। फ़िल्म अपने अंदर बहुत सूक्षम पल, किरदार और लम्हे लिए हुए है। जब आप उन बच्चों को देखते हैं, उन की जदो-जेहद को देखते हैं,तोह आप अपने स्कूल के समय में जा पहुँचते हैं।
एक रिफ्यूजी, जिसके परिवार को जला दिया गया हो, जो अपने वतन लौट नहीं सकता कैसे बिना टीचिंग के किसी एक्सपीरियंस के क्या बच्चों के मन से अचरज निकल पाता है, यह इस कथा का अत्यंत महत्वपूर्ण काव है। सिनेमा की रूह को पसंद करने वाले लोगों को यह फ़िल्म अवश्य देखनी चाहिये क्योंकि यह रूह से बनी फ़िल्म है और इस बात को भी झुठला देती है के आज के दौर में, पहले जैसे उम्दा निर्देशक नहीं हो सकते।

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फिल्लीप की निर्देशक के तौर पे यह चौथी फ़िल्म है। एक इंटरव्यू में फिल्लीप कहता है के
“we have to let the teachers invest
in their own classroom . There ’ s no use in trying to control everything . Education is fundamental . The teacher will never be a parent . The parents are the parents . But they have to engage in some sort of active
education beyond just teaching mathematics and French and English because the kids spend more time there than they do with their parents at that age .I think we
should let the teachers do their work and not impose too much stuff on them”.

पूरा इंटरव्यू आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं –
http:// collider.com/philippe-falardeau-monsieur-lazhar-interview/160745/
– Gursimran Datla

Author: Gursimran Datla

Film Programming - Film-making and Researcher on Film Criticism.

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