The Boy in the Striped Pyjamas 2008 में आई मार्क हेरमन द्वारा निर्देशित, जॉन बोयन की किताब पर आधारित एक हिस्टोरिकल फ़िल्म है।
कार्टून की किताबों, राजाओं की गाथा की जगह खुनी इतहास और गुमराहकुन् वर्तमान की किताबों ने जगह ले ली है। मुबारक हो, बचपन खत्म हो गया है, अब यथार्थ के घूँट पीने के लिए तयार हो जाओ। जिसमें गुलाम हैं, बंदिशें हैं, रुकावतें हैं, मजबूरियाँ है।
यह फ़िल्म विश्व् युद्ध 2 में नाज़ियों के द्वारा चलाये जा रहे extermination camps के भ्यावेह दृश्य को 8 साल के 2 बच्चों के नज़रिये से प्रस्तूत करती है। जिसमें एक बच्चा नाज़ी कमांडर का बेटा है तोह दूसरा एक jew।
8 साल के बच्चे की आँखें जब – कैंप से उठते धुएं को देखती हैं तोह बचपन धुन्दला होता चला जाता है। पिता कहता है ‘बेटा, चमड़े के जूते जल रहे हैं’।
पुराना घर छूट गया है। मार्टिन, डेनियल, पीटर छूट गए हैं। अब आस पास मिल्ट्री की वर्दी में घूमते लोग उस नन्ही आँखों को उतेजित नही कर पा रहे।
हम एक बार यह सोचें के हम अपने बच्चों को कैसे भविष्य तोहफे में देकर जा रहे हैं। हमारे मुफ़्त के पानी को अरबों की इंडस्ट्री में ढाल दिया। मुफ़्त की हवा को दूषित कर दिया।
मैं कहता हूँ इतहास की वो किताबें, जिनमें जंगों का ज़िक्र है, क्यों ना आज वो किताबें फाड़ दी जाएँ ? नन्हीं आँखें जब अपनी उम्र से ज्यादा देखने लगें तोह समझ लेना चाहिये के अराजकता अपने उफान पर है।
बचपन जब अगला दरवाज़ा बंद देखता है तोह उसमें इतनी हिम्मत ज़रूर होती है के कोई चुपके से पिछला दरवाज़ा ढून्ढ निकाले। यह होंसला निडरता से आता है। हमारा समाज बचपन से ही हमारे अंदर के निडर बच्चे को स्कूल के बस्ते की नीचे या फिर युद की कब्रगाहों से रोंधता आया है।
वैसे, पिछले दरवाज़े पे क्या है ? गुलामों की सूख चुकी हड्डियां ? प्यालों में भर स्याह काला खून ? यहां बचपन इतहास के वर्कों में लताड़ दिया जा रहा है।
तकलीफदेह है के स्कूल की किताबों में जो झूठ हमें रटाये गए, वो हमारी चमड़ी के बालों की तरह हमारा हिस्सा हो गए। हमें खुद की ज़मीन ढूँढने का मौका ही नहीं मिला। हम जिस ज़मीन पर पैदा हुए वो या तोह वर्ल्ड बैंक के कर्जे तले दबी थी, या उस ज़मीन पर किसी मजदूर/किसान की हड्डियां दफ़न थी। हमें सोचने,समझने, जानने, खोजने, देखने, सुनने का मौका ही नहीं दिया गया। पैदा होते ही हमें किसी एक भगवान् के सुपुर्द कर दिया गया। किसी एक शेहेर, किसी एक कौम, किसी एक जात के नाम हम लिख दिए गए। और ता-उम्र जब तक आखरी साँस न शुरू हों, यह बंदिशें मजबूत जकड़न बन कर हमारे आस पास लिपटी रहतीं हैं। चाहे सर्वे करा के देख लीजियेगा 90 फीसदी लोग मायूसी की ज़िन्दगी मरते होंगे।
जाओ उस आदमी को ढून्ढ लाओ जिसने मेरे हाथ पे लिख दिया था ‘तुम आज़ाद हो’।
यह फ़िल्म खुद भी देखिएगा और अपने बच्चों को भी दिखाइयेगा। उन्हें वो सच भी बताइयेगा जिससे आपको दूर रखा। कम से कम हम इतना तोह फ़र्ज़ निभायें के आने वाली नस्ल चाहे वो बिरला, टाटा, relience, नेस्ले इत्यादि कंपनियों द्वारा अदिग्रहित की जा चुकी ज़मीन पर ही क्यों ना पैदा हो, पर सच्चाई के साथ पैदा हो।
– Gursimran Datla